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आखिर क्या है कव्वाली विधा

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आपने पहले की कई फिल्मों में कव्वाली सुनी होगी, जैसे- ‘ ऐ मेरे जोहरा जबीं तुझे मालूम नहीं …’ , ‘ न सर झुका के जियो … आदि। लेकिन, क्या कभी आपने यह जानने की कोशिश की कि आखिर कव्वाली है क्या! तो आज हम इसी बात पर चर्चा कर रहे हैं। दरअसल, कव्वाली का इतिहास सात सौ साल पुराना है। यह संगीत की लोकप्रिय विधा है, जो आठवीं सदी में ईरान और अफगानिस्तान में गाई जाती थीं। शुरुआती दौर से ही सूफी संगीत में डूबी यह विधा 13वीं सदी में भारत आई। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि यही वह इस्लाम का सूफी स्वर था, जिसने उपेक्षित निचली जातियों को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाबी पाई। इस कव्वाली का आगाज मुस्लिम धर्म के सूफी पीर फकीरों ने किया। बाद में इसका जगह-जगह आयोजन किया जाने लगा, जिसे समां के नाम से जाना जाने लगा। इस समां का आयोजन धार्मिक विद्वानों की देखरेख में किया जाता था, जिसका मकसद होता था कव्वाली के जरिये ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करना। प्रारंभ में सूफियों ने अमन और सच्चाई की पैगाम पहुंचाने के लिए मौसिकी और समां का सहारा लिया। बाद में इस कव्वाली का पदार्पण भारत में हुआ और भारतीय सूफी संतों ने इसे य...

दिल्‍ली का लोटस टेंपल

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अगर आप दिल्‍ली घूमने का प्‍लान बना रहे हैं तो इंडिया गेट और लाल किले के अलावा एक और डेस्टिनेशन है जो दिल्‍ली के प्रमुख आकर्षणों में से एक है और वह है लोटस टेंपल। दिल्‍ली के नेहरू प्‍लेस में स्थित लोटस टेंपल एक बहाई उपासना मंदिर है, जहां न ही कोई मूर्ति है और न ही किसी प्रकार की पूजा पाठ की जाती है। लोग यहां आते हैं शांति और सुकून का अनुभव करने। कमल के समान बनी इस मंदिर की आकृति के कारण इसे लोटस टेंपल कहा जाता है। इसका निर्माण सन 1986 में किया गया था। यही वजह है कि इसे 20वीं सदी का ताजमहल भी कहा जाता है। भारतीय परंपराओं में कमल को शांति और पवित्रता के सूचक और ईश्‍वर के अवतार के रूप में देखा जाता है। मंदिर का वास्‍तु पर्शियन आर्किटेक्ट फरीबर्ज सहबा द्वारा तैयार किया गया था। दुनिया भर में आधुनिक वास्‍तु कला के नमूनों में से एक लोटस टेंपल भी है। इसका निर्माण बहा उल्‍लाह ने करवाया था, जो कि बहाई धर्म के संस्‍थापक थे। इसलिए इस मंदिर को बहाई मंदिर भी कहा जाता है। बावजूद इसके यह मंदिर किसी एक धर्म के दायरे में सिमटकर नहीं रह गया। यहां सभी धर्म के लोग आते हैं और शांति और सूकून का लाभ प्...

राहुल गांधी ने अपनी रणनीतिक चातुर्य का लोहा मनवा दिया

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महज एक साल पहले कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभाले राहुल गांधी ने अपनी रणनीतिक चातुर्य का लोहा मनवा दिया। छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में जिस प्रकार से कांग्रेस ने प्रदर्शन किया है, वह काबिलेतारीफ है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन का श्रेय पार्टी के नेता अपने अध्यक्ष राहुल गांधी को दे रहे हैं, जिन्होंने चुनाव वाले पांचों प्रदेशों में कुछ हफ्तों के भीतर 82 सभाएं और सात रोड शो किए थे। कांग्रेस के संगठन महासचिव अशोक गहलोत का कहना है कि इन चुनावों में खासकर राजस्थान में पार्टी के अच्छे प्रदर्शन का श्रेय राहुल गांधी के नेतृत्व को जाता है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के चुनाव प्रचार अभियान से जुड़े पार्टी के एक वरिष्ठ पदाधिकारी के मुताबिक, राहुल गांधी ने 7 अक्टूबर को चुनाव आयोग द्वारा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा करने के बाद सबसे अधिक 25 जनसभाएं मध्य प्रदेश में कीं। उन्होंने मध्य प्रदेश में 4 रोड शो भी किए। कांग्रेस अध्यक्ष ने राजस्थान और छत्तीसगढ़ में 19-19 चुनावी सभाओ...

मांडू नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा

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मांडू मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित एक पर्यटन स्थल है। इन्दौर से लगभग 100 किमी दूर है। माण्डू विन्ध्य की पहाड़ियों में 2000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मूलत: मालवा के परमार राजाओं की राजधानी रहा था। तेरहवीं सदी में मालवा के सुलतानों ने इसका नाम शादियाबाद यानि “खुशियों का शहर” रख दिया था। वास्तव में यह नाम इस जगह को सार्थक करता है। यहाँ के दर्शनीय स्थलों में जहाज महल, हिन्डोला महल, शाही हमाम और आकर्षक नक्काशीदार गुम्बद वास्तुकला के उत्कृष्टतम रूप हैं। परमार शासकों द्वारा बनाए गए इस नगर में जहाज और हिंडोला महल खास हैं। यहाँ के महलों की स्थापत्य कला परमार माण्डू को रचने-बसाने का प्रथम श्रेय परमार राजाओं को है। हर्ष, मुंज, सिंधु और राजा भोज इस वंश के महत्वपूर्ण शासक रहें हैं। किंतु इनका ध्यान माण्डू की अपेक्षा धार पर ज्यादा था, जो माण्डू से महज 30 किलोमीटर है। परमार वंश के अंतिम महत्वपूर्ण नरेश राजा भोज का ध्यान वास्तु की अपेक्षा साहित्य पर अधिक था और उनके समय संस्कृत के महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे गए। उनकी मृत्यु पर लेखकों ने यह कहकर विलाप किया कि अब सरस्वती निराश्रित हो गई हैं। देख...

भगवान शिव का यह नदी की धारा स्वयं करती है अभिषेक

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कर्नाटक के एक शहर सिरसी में शलमाला नाम की एक नदी बहती है। यह नदी अपने आप में खास है, क्योंकि इस नदी में एक साथ हजारों शिवलिंग बने हुए हैं। ये सभी शिवलिंग नदी की चट्टानों पर बने हुए हैं। यहां की चट्टानों में शिवलिंगों के साथ-साथ नंदी, सांप आदि भगवान शिव के प्रियजनों की भी आकृतियां भी बनी हुई हैं। हजारों शिवलिंग एक साथ होने की वजह से इस स्थान का नाम सहस्त्रलिंग पड़ा। मान्यता है कि 16वीं सदी में सदाशिवाराय नाम के एक राजा थे। वे भगवान शिव के बड़े भक्त थे। शिव भक्ति में डूबे रहने की वजह से वे भगवान शिव की अद्भुत रचना का निर्माण करवाना चाहते थे। इसलिए राजा सदाशिवाराय ने शलमाला नदी के बीच में भगवान शिव और उनके प्रियजनों की हजारों आकृतियां बनवा दीं। नदी के बीच में स्थित होने की वजह से सभी शिवलिंगों का अभिषेक और कोई नहीं, बल्कि खुद शलमाला नदी की धार द्वारा किया जाता है। वैसे तो इस अद्भुत नजारे को देखने के लिए यहां पर रोज ही अनेक भक्तों का आना-जाना लगा रहता है, लेकिन शिवरात्रि व श्रावण के सोमवार पर यहां भक्त विशेष रूप आते हैं। यहां पर आकर भक्त एक साथ हजारों शिवलिंगों के दर्शन और अभिषेक ...

वास्तुकला की दृष्टि से भी अद्भुत है माण्डू

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मध्य प्रदेश का प्राचीनतम शहर माण्डू पर्यटन की दृष्टि से एशिया स्तर पर सर्वोत्तम माना जाता है। यह शहर न सिर्फ ऐतिहासिक है, अपितु यहां के भवन वास्तुकला की दृष्टि से भी अद्भुत कहे जाते हैं। अगर कभी पत्थरों के जरिए इतिहास को जानने का मन करे, तो मांडू घूमने की तैयारी कर लें। वैसे, अपने माहौल व खूबसूरती के चलते यह बसने के साथ ही श्खुशियों के शहरश् के नाम के साथ इतरा रहा है। मध्य प्रदेश का मांडू विंध्याचल पहाड़ियों में बसा है। 13वीं शताब्दी के अंत में इसे मालवा के राजा ने बसाकर इसे शदियाबाद यानी खुशियों के शहर का नाम दिया। इसके बाद इस पर राज करने वाले हर शासक ने इसे किसी न किसी खास इमारत का तोहफा दिया। इन खास इमारतों में से कुछ बाज बहादुर और रानी रूपमति की प्रेम कहानी भी पूरे दिल से सुनाती हैं। मालवा के पठार क्षेत्र में बसा माण्डू पूर्वी देशातंर रेखा से 75 डिग्री-25 डिग्री व उत्तरी अक्षांश से 22 डिग्री 15 डिग्री पर विध्यांचल के दक्षिण किनारे पर स्थित है। यह समुद्री तल से 633.7 मीटर ऊंचाई पर अपने आभा मण्डल से पर्यटकों को आकर्षित कर रहा है। माण्डू की सबसे बड़ी पहचान यहां का दुर्ग है ज...

‘कन्याकुमारी’ कला, सभ्यता और संस्कृति का संगम है

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कन्याकुमारी हिंद महासागर, बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर का संगम स्थल है। यहां अलग-अलग सागर अपने विभिन्न रंगों से मनोरम छटा बिखेरते हैं। भारत के सबसे दक्षिण छोर पर बसा कन्याकुमारी वर्षों से कला, संस्कृति, सभ्यता का प्रतीक रहा है। भारत के पर्यटक स्थल के रूप में भी इस स्थान का अपना ही महत्व है। दूर-दूर फैले समुद्र के विशाल लहरों के बीच यहां का सूर्योदय और सूर्यास्त का नजारा बेहद आकर्षक लगता है। समुद्र तट पर फैले रंग-बिरंगे रेत इसकी सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। कन्याकुमारी दक्षिण भारत के महान शासकों चोल, चेर, पांड्य के अधीन रहा है। यहां के स्मारकों पर इन शासकों की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। इस जगह का नाम कन्याकुमारी पड़ने के पीछे एक पौराणिक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने असुर बानासुरन को वरदान दिया था कि कुंवारी कन्या के अलावा किसी के हाथों उसका वध नहीं होगा। प्राचीन काल में भारत पर शासन करने वाले राजा भरत को आठ पुत्री और एक पुत्र था। भरत ने अपना साम्राज्य को नौ बराबर हिस्सों में बांटकर अपनी संतानों को दे दिया। दक्षिण का हिस्सा उसकी पुत्री कुमारी को मिला। कुमारी को शक्त...